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आगमन, निर्गमन और पितृ पक्ष

  • Writer: Sci-Nat-Astro Web
    Sci-Nat-Astro Web
  • Sep 24, 2022
  • 9 min read

आगमन, निर्गमन और पितृ पक्ष

कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष, अमावस्या और पूर्णिमा भारतीय अध्यात्म और विशेषकर ऋषियों के दिव्य विज्ञानिक अध्ययनों में इनका एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

जैसा की अधिकतर गण जानते ही हैं की कृष्ण पक्ष के आरम्भ से लेकर अमावस्या तक के काल का संबंध ऊर्जाओं के अधोगमन से माना जाता है, इस समय प्राण त्यागने वाले कर्मयोगी चंद्रज्योति अर्थात चंद्रमा के प्रकाश की अनुभूति को प्राप्त कर पुनः संसार में लौट आते हैं या यूं कहें की पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं।

इसके ठीक विपरीत शुक्ल पक्ष के आरम्भ से लेकर पूर्णिमा तक का समय ऊर्जाओं के ऊर्ध्वगमन का काल होता है, यह वह मार्ग है जिसमें प्राण त्यागने पर ब्रह्मज्ञानी जन्म-मरण के चक्र से छूटकर स्वयं प्रकाश स्वरूप होकर परमगति को उपलब्ध होता है। यानि अमावस्या का संबंध आगमन और पूर्णिमा का संबंध निर्गमन से है। *इन दो मार्गों का वर्णन भगवत गीता के निम्नलिखित श्लोकों में मिलता है:-


अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:।।८/२४।।


धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।८/२५।।


ऐसी प्राकृतिक खगोलीय व्यवस्थाओं के कारण ही अमावस्या तिथि पर पितरों को प्रसन्न करने हेतु, उनकी ऊर्ध्वगति एवं शांति हेतु दान-पुण्य करने का विधान है।


यद्यपि अमावस्या का संबंध आगमन और पूर्णिमा का संबंध निर्गमन से है तद्यपि ब्रहमांडीय व्यवस्था के अध्ययनों व गणित के आधार पर आचार्य गणों ने भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पूर्वजों के आगमन और सर्वपितृ अमावस्या को पूर्वजों के निर्गमन से संबंधित बतलाया है। इस काल से संबंधित यह धारणा अन्य पूर्णिमा तिथियों एवं अमावस्या तिथियों के ठीक विपरीत है। इस समय को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष भी कहा गया है। ऐसी आश्चर्य से भरी धारणा के केन्द्र में क्या कोई ज्योतिषीय कारण भी है? क्या इसका कोई खगोलीय आधार भी हो सकता है? यह अध्ययन ऐसे ही कारणों को प्रकाश में लाने का एक छोटा सा प्रयास है।

* विषय के संबंध में आगे बढ़ने से पूर्व इस जटिल व्यवस्था को और भी अधिक सटीकता से समझने के लिए श्रृंखला “उतरायण- दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष” देखें, वीडियो लिंक नीचे दिए जा रहे हैः-


उतरायण-दक्षिणायन,अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-1)

उतरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-2)

उतरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-3)

उतरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-4)

उतरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-5)

उतरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष (भाग-6)


मैगनेटोटेल, मूनटेल और कालपुरुष कुण्डली

इस व्यवस्था की जड़ में उतरने के लिए आवश्यक है कि ज्योतिषीय गणनाओं और अध्ययनों में प्रयोग की जाने वाली ग्रहों, राशियों व नक्षत्रों की स्थाई व निर्धारित स्थितियों और जन्म कुण्डली के मूल स्वरूप से संबंधित उन तथ्यों पर एक दृष्टि दौड़ा ली जाए जो इस सूत्र को समझने में सहायक हैं। केवल इन्हीं तथ्यों की गूढ़ समझ के माध्यम से ही प्राचीन ज्योतिष महाविद्या के रचयिताओं की दिव्य दृष्टि को उपलब्ध होकर इस जटिल व अद्भुत खगोलीय व्यवस्था से परिचित हुआ जा सकता है।


जैसा की "उत्तरायण-दक्षिणायन, अध्यात्म और ज्योतिष" नामक श्रृंखला में बताया जा चुका है कि सूर्य द्वारा उत्सर्जित सौरवायु के प्रभाव से पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र सूर्य वाली दिशा से विपरीत दिशा में फैल जाता है और प्रत्येक पूर्णिमा पर चंद्रमा पृथ्वी के इसी पूंछनुमा आकार में फैले हुए चुम्बकीय मंडल के भीतर स्थित होता है। पूंछनुमा आकार में फैल जाने वाले इस चुम्बकीय क्षेत्र को मैग्नेटोटेल कहा जाता है। साथ ही यह भी बताया गया है कि चंद्रमा की कक्षा में 5° झुकाव के कारण पूर्णिमा के ही दिन समय समय पर चंद्र-ग्रहण लगता रहता है।

चित्र संख्या 1 में सूर्य से उत्सर्जित सौरवायु के प्रभाव से पृथ्वी का फैला हुआ चुम्बकीय क्षेत्र, इसे मैग्नेटोटेल कहा जाता है।

चित्र संख्या 2 में अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हुए पृथ्वी के मैगनेटोटेल में पहुंच चुके पूर्णिमा के चंद्रमा की स्थिति। (अपनी कक्षा में 5° झुकाव के कारण कई बार चंद्रमा पृथ्वी की छाया के प्रभाव में भी आ जाता है, ऐसी पूर्णिमा पर ही चंद्र-ग्रहण भी होता है)

चित्र संख्या 3 में सूर्य व ग्रहों के क्रम, पृथ्वी की संरचना, जीव कुण्डलिनी क्रम और राशियों-नक्षत्रों की व्यवस्थाओं पर आधारित गणनात्मक चित्रण है जिसमें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के भीतर स्थित पूर्णिमा के चंद्रमा और सूर्य की निर्धारित स्थितियों को दर्शाया गया है। कुण्डली के इस मूल स्वरूप में अंकित भावों, उनकी राशियों और स्वामी ग्रहों की स्थितियां ज्यों कि त्यों रहती हैं कालांतर के साथ इनमें कोई अंतर नहीं आता। यह चित्रण कालपुरूष कुण्डली भी कहलाता है।

इस चित्र में सूर्य का पूर्व दिशा संबंध होने के कारण इस चित्र के पूर्वी भाग में ही सूर्य की स्थिति होती है और पूर्णिमा के चंद्रमा की स्थिति 150° से 180° के मध्य स्थित कन्या राशि में होती है।


वहीं जब चंद्रमा अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हुए सूर्य वाली दिशा में आता है उस दिन अमावस्या होती है और इस समय उल्कापिंडों के टकराव से चंद्रमा की सतह से निकल कर चंद्रमा के ऐक्सोस्फीयर में आ जाने वाले सोडियम अणु सौरवायु के प्रभाव द्वारा पूंछनुमा प्रवाह के साथ धरती की ओर धकेल दिए जाते हैं। सोडियम अणुओं के इस प्रवाह को मूनटेल भी कहते हैं।

चित्र संख्या 4- चंद्रमा की सतह से निकलते सोडियम अणुओं को पृथ्वी की और धकेलती सौरवायु।

चित्र संख्या 5- चंद्रमा की सोडियम टेल इसे मूनटेल भी कहते हैं।

चित्र संख्या 6- में कुण्डली के मूल स्वरूप में अमावस्या के चंद्रमा, सोडियम टेल या मूनटेल, सूर्य और चंद्र व दोनों से विपरीत दिशा में फैले पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का चित्रण।

क्योंकि इसमें सूर्य की निर्धारित स्थिति पूर्व की और होती है इसलिए अमावस्या के चंद्रमा की स्थिति यहां 330° से 360° के मध्य यानि मीन राशि में होती है।


अमावस्या पर चंद्रमा से पृथ्वी की दिशा में गमन करते मूनटेल का संबंध ऊर्जाओं के धरती पर आगमन से है और पूर्णिमा पर पृथ्वी से प्रकाशपूर्ण चंद्रमा की और उठने वाले मैग्नेटोटेल का संबंध निर्गमन से है।



कालपुरुष कुण्डली

ज्योतिष महाविद्या में कई खगोलीय व्यवस्थाओं को केन्द्र में रखकर कुण्डली या ग्रह-राशि पत्रिका के मूल या स्थाई रूप की रचना की गई है, जिसमें इस प्रकार के विभिन्न खगोलीय तथ्यों का सटीक समावेश प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा किया गया है।

जन्म कुण्डली के इस मूल स्वरूप को कालपुरुष कुण्डली, परमात्मा की कुण्डली या ब्रह्माण्ड की जन्म कुण्डली भी कहा जाता है। कुण्डली का यह मूल स्वरूप वास्तव में स्वयं खगोलीय व्यवस्था द्वारा निर्धारित राशियों, नक्षत्रों व ग्रहों की स्थितियों का जन्म कुण्डली में किया गया गणनात्मक चित्रण है। ज्योतिष में कुण्डली के इस मूल स्वरूप का महत्वपूर्ण स्थान है, एक प्रकार से यह सभी कुण्डलियों का आधार भी है। किसी भी जातक की कुण्डली के सटीक फलादेश के लिए उस कुण्डली की तुलना कालपुरुष कुण्डली से की जाती है, कुण्डली के ऐसे अध्ययन से फलादेश की सटीकता और बढ़ जाती है।


चित्र संख्या 7- निर्धारित राशि-नक्षत्र चक्र


चित्र संख्या 8- कालपुरुष कुण्डली


चित्र संख्या 9- कालपुरुष कुण्डली में अमावस्या और पूर्णिमा का चित्रण। इसमें चंद्रमा के कक्षीय झुकाव अनुसार छाया ग्रह राहु एवं केतु को भी मीन व कन्या राशियों में दर्शाया गया है।


*सूर्य पूर्व दिशा का स्वामी है इसलिए कालपुरुष कुण्डली में इसका निर्धारित स्थान पूर्व की ओर है।

*कालपुरुष कुण्डली के स्वरूप के खगोलीय आधारों और रहस्यों को और गहराई से जानने के लिए पढ़ें "खगोलीय व्यवस्था ज्योतिष" (अध्याय- जन्म कुण्डली का आधुनिक स्वरूप)


भाद्रपद की पूर्णिमा और कालपुरुष कुण्डली

अब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि की कुण्डली की तुलना यदि कालपुरुष कुण्डली यानि ब्रह्माण्ड की कुण्डली से की जाए तो सपष्ट दिखाई पड़ता है कि जो पृथ्वीवासियों के दृष्टिकोण में पूर्णिमा है वो ब्रह्माण्डीय व्यवस्था यानि कालपुरुष कुण्डली अनुसार अमावस्या है, यही कारण है कि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पूर्वजों को मुक्ति दिलाने वाले श्राद्ध पक्ष के आरम्भ रूप में निर्धारित किया गया है, क्योंकि भले ही अमावस्या का संबंध आगमन व पुनरावृत्ति से हो परन्तु पूर्णिमा का संबंध प्रकाश से है और प्रकाश में ही बंधन से मुक्त होने का मार्ग दिख सकता है (अध्यात्म में ऐसी धारणा प्रचलित है)।

इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि स्थूल दृष्टि से देखने पर पूर्णिमा तो है परन्तु उसके सूक्ष्म प्रभाव और उसका स्वभाव अमावस्या के समान भी है।


चित्र संख्या 10 में भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा पर सूर्य, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के फैलाव और उसमें स्थित चंद्रमा की स्थितियों को कुण्डली के माध्यम से दर्शाया गया है। वहीं चित्र संख्या 11 में राशि-नक्षत्र चक्र में इनकी स्थितियों को दिखाया गया है।

इस पूर्णिमा के समय सूर्य सिंह राशि(120°-150°) से कन्या राशि(150°-180°) की ओर गोचर कर रहा होता है जहां ये फाल्गुनी नक्षत्र में सामान्यतः 140° से 160° के मध्य रहता है, हालांकि इन अंशों में सूर्य, चंद्र और पृथ्वी की दूरियों, कक्षीय झुकावों और पृथ्वी की डगमगाहट के कारण कुछ अंतर बढ़ता या घटता भी रहता है पर इस समय सूर्य की सामान्य स्थिति सिंह राशि और कन्या राशि के मध्य ही रहती है जैसा दोनों चित्रों में अंकित है।

ठीक इसी प्रकार भाद्रपद पूर्णिमा पर चंद्रमा कुंभ राशि(300°-330°) से मीन राशि(330°-360°) की ओर गोचर कर रहा होता है जहां ये भाद्रपद नक्षत्र में सामान्यतः 320° से 340° के मध्य रहता है, हालांकि खगोलीय कारणों से इन अंशों में कुछ अंतर घटता-बढ़ता रहता है, पर इस समय चंद्रमा की सामान्य स्थिति कुंभ राशि और मीन राशि के मध्य रहती है साथ ही पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र भी इसी ओर फैला रहता है जैसा चित्र 10 और 11 में अंकित है।



वहीं चित्र संख्या 12 और 13 में पूर्णिमा से संबंधित भावों, राशियों और नक्षत्रों में सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के फैलाव की स्थाई और निर्धारित स्थितियों को कालपुरुष कुण्डली और राशि-नक्षत्र चक्र में दर्शाया गया है, जिनमें यह सपष्ट देखा जा सकता है कि पूर्णिमा का संबंध यहां कन्या राशि से है जहां पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में चंद्रमा को देखा जा सकता है।


चित्र संख्या 14 में कालपुरुष कुण्डली में अमावस्या और पूर्णिमा की स्थाई और निर्धारित स्थितियों को दर्शाया गया है, जिससे तुलना करने पर सपष्ट देखा जा सकता है कि जो भाद्रपद में पूर्णिमा का स्थान है वह कालपुरुष कुण्डली के अनुसार वास्तव में अमावस्या का स्थान है। यही कारण है की सभी विभिन्न तथ्यों को ध्यान में रखकर भाद्रपद की पूर्णिमा को पितृ आगमन से संबंधित जानकर पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाले श्राद्ध पक्ष के आरम्भ के रूप में स्थापित किया गया है, क्योंकि ब्रह्माण्ड की कुण्डली से तुलना करने पर चंद्रमा से परावर्तित होता सूर्य का प्रकाश ऊर्जाओं के पृथ्वी पर आगमन के मार्ग को प्रकाश में ले आता है।



आश्विन की अमावस्या और कालपुरुष कुण्डली

इसी के ठीक विपरीत आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि की कुण्डली की तुलना यदि कालपुरुष कुण्डली यानि ब्रह्माण्ड की कुण्डली से की जाए तो पुनः यह सपष्ट दिखाई पड़ता है कि जो पृथ्वीवासियों के दृष्टिकोण में अमावस्या है वो ब्रह्माण्डीय व्यवस्था यानि कालपुरुष कुण्डली अनुसार पूर्णिमा है, यही कारण है कि आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को पूर्वजों को मुक्ति दिलाने वाले श्राद्ध पक्ष की अंतिम तिथि के रूप में निर्धारित किया गया है, क्योंकि पूर्णिमा का संबंध निर्गमन से है और पूर्णिमा के ही दिन समय समय पर चंद्र-ग्रहण भी होता है जिसका संबंध मोक्ष, केतु और ऊर्ध्वगमन से है इसलिए काल के इस पड़ाव पर होने वाली अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या के रूप में निर्धारित किया गया है।


चित्र संख्या 15 में आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या पर सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के फैलाव की स्थितियों को कुण्डली के माध्यम से दर्शाया गया है। वहीं चित्र संख्या 16 में राशि-नक्षत्र चक्र में इनकी स्थितियों को दिखाया गया है। इस अमावस्या के समय सूर्य कन्या राशि यानि 150°-180° के बीच गोचर कर रहा होता है जहां यह फाल्गुन या हस्त नक्षत्र में सामान्यतः 160° से 180° के मध्य स्थित होता है। हालांकि इन अंशों(डिग्रियों) में सूर्य, चंद्र और पृथ्वी के बीच की दूरियों, इनके कक्षीय झुकावों और पृथ्वी की डगमगाहट के कारण कुछ अंतर बढ़ता या घटता भी रहता है पर इस समय सूर्य की सामान्य स्थिति कन्या राशि में ही रहती है जैसा दोनों चित्रों में अंकित है। ठीक इसी प्रकार आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या पर चंद्रमा भी सूर्य के साथ कन्या राशि में स्थित होता है, जैसा चित्रों में अंकित है। *अमावस्या पर सूर्य और चंद्र एक ही दिशा में होते हैं।




वहीं चित्र संख्या 17,18 और 19 में अमावस्या से संबंधित भावों, राशियों और नक्षत्रों में सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के फैलाव की स्थाई और निर्धारित स्थितियों को कालपुरुष कुण्डली और राशि-नक्षत्र चक्र में दर्शाया गया है, जिनमें यह सपष्ट देखा जा सकता है कि अमावस्या का स्थान यहां मीन राशि में है जो कन्या राशि से वामावर्त (Anticlockwise) दिशा में गणना करने पर ठीक सात भाव आगे है यानि ठीक उसके विपरीत है और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का फैलाव कन्या राशि में है।





चित्र संख्या 20 में कालपुरुष कुण्डली में अमावस्या और पूर्णिमा की स्थाई और निर्धारित स्थितियों को दर्शाया गया है, जिससे तुलना करने पर सपष्ट देखा जा सकता है कि जो आश्विन में अमावस्या का स्थान है वह कालपुरुष कुण्डली के अनुसार वास्तव में पूर्णिमा का स्थान है। यही कारण है की सभी विभिन्न तथ्यों को ध्यान में रखकर आश्विन की अमावस्या को पितृ निर्गमन से संबंधित जानकर सभी पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाली सर्वपितृ अमावस्या के रूप में स्थापित किया गया है, क्योंकि ब्रह्माण्ड की कुण्डली से तुलना करने पर पूर्णिमा का प्रकाश ऊर्जाओं के पृथ्वी से निर्गमन के मार्ग को प्रकाश में ले आता है।


तो इस प्रकार भाद्रपद की पूर्णिमा और आश्विन मास की अमावस्या को ब्रह्माण्ड की कुण्डली के समानांतर रखकर अध्ययन करने के पश्चात इस समय को आचार्यों द्वारा पूर्वजों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाले पितृ पक्ष के रूप में निर्धारित किया गया है। यहां यह भी देखा जा सकता है कि प्राकृतिक रूप से ही भाद्रपद की पूर्णिमा पितृ आगमन और आश्विन की अमावस्या पितृ विसर्जन से संबंधित हैं, इसीलिए इस समय का अत्यधिक महत्व माना गया है। पितृ देव स्वरूप माने जाते हैं इसलिए श्राद्ध पक्ष में इनके प्रति श्रद्धा अर्पित करने का विधान है।



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